प्यारी सुराही,
बचपन में, पेप्सी, कोक, या फैंटा के रंगीन जाल से दूर, अगर कोई पेय सचमुच तरोताज़ा कर देता था तो वो था सुराही का ठंडा पानी. मिट्टी की वो भीनी-भीनी खुशबु लिए, जैसे ही ठन्डे पानी का गिलास गले से नीचे उतरता, मानो अपने साथ वो सारी थकान गड़प कर जाता जो दिनभर हुड़दंग के बाद हमारे साथ चली आयी थी.
चाहे पतंगबाज़ी में आज लुटकर आये हो, गिल्ली-डंडे में दोस्त ने धुल चखाई हो, साइकिल पर सवार मोहल्ले की हर गली छान आयें हो, क्रिकेट में छक्के छुड़ाए हो या लुका-छिपी में धप्पे खाये हो… हर तरह की थकान को छूमंतर करने का इलाज था तुम्हारे पास.
और हम ही क्या…माँ-बाबा, दादा-दादी, बड़े सभी तो काम-काज से निपटकर सीधा तुम्हारी तरफ ही खींचे चले आते थे – उस राहत भरी ताज़गी को पाने जो सिर्फ तुम ही दे सकती थी. सचमुच, आज सोचकर भी हैरानी होती है – न बिजली, न बर्फ, न जाने क्या पावर था तुम में जो झट से पानी को इतना शीतल बना देती और हमें इतना सुकून दे जाती.
मार्च-अप्रैल आते आते माँ का फरमान जारी कर दिया जाता कि अब दुकान से सुराही ले आएं. पापा की स्कूटर पर सवार एक संडे हम निकल ही पड़ते, दायें-बायें नज़र दौड़ाते, सुराहियों की पिरामिड की खोज में जो दुकानदार बड़े ही कायदे से फुटपाथों पर सजा कर रख देते थे.
“एक है वहाँ !” जैसे ही इशारा होता, स्कूटर का ब्रेक लगता और शुरू होता सालाना selection process. एक जैसी दिखती सुराहियों की कतारों से बड़े ही सोच-विचार के बाद पापा एक की तरफ इशारा करते और दुकानदार झट से उसे उंगलियों में नचाता, घुमा-घुमाकर खनकाते हुए सामने रख देता था. “छेद तो नहीं है कही?” सवाल के जवाब में एक बार फिर सुराही को अलग जगहों से खटखटाया जाता. टन -टन की आवाज़ कानो में पड़ते ही यकीन हो जाता कि ये सुराही जितना मीठा गाती है उतना ही मीठा पानी भी पिलाएगी.
कभी-कभी चुनने का मौका हमें भी दिया जाता – पत्तियों वाला डिज़ाइन चाहिए या फूलों वाला? अगर दुकान कुम्हार ने ही लगा रखी हो तो फिर तो मज़ा दुगुना!! खरीदने के साथ यह भी देखने को मिल जाता कि ये सधे हुए हाथ आम सी दिखने वाली मिट्टी को कैसे चुटकी में नलीदार गर्दन वाली सुराही में ढाल देते है. कुछ छोटे, कुछ मोठे, कुछ में additional चाय दानी की तरह हैंडल और शेर के मुँह के आकार की टोंटी भी!
माटी के मोल में इस ठंडक को पाने न जाने कितने ही लोग गर्मियों में इन सुराहियों को घर ले आते फिर चाहे वो दुमंज़िला बंगला हो या एक कमरे का आशियाना.
गर्मियों के दिन है, फ्रिज से ठन्डे पानी की बोतलें मिनटों में खाली हो रही हैं पर प्यास है की बुझने का नाम ही नहीं लेती – ऊपर से यह चिंता अलग कि ज़्यादा बर्फ वाले पानी से गला ही न ख़राब हो जाये. रस्ते पर चलते हुए आज भी आँखे इधर उधर फुटपाथों को छानती है – शायद कहीं कोई सुन्दर सुराहियों की कतार सजाए हमारी ही राह ताक रहा हो…
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