हाँ , गुलामी मैंने नहीं देखी ,
वे स्वर मेरे कानों पर नहीं पड़े ,
जो देश की स्वतंत्रता के सपने दिखाते थे ,
वो लाठियाँ मैंने नहीं खाई ,
जो हर उस पीठ पर पड़ी जो तनकर तिरंगा सम्हाले था ,
मेरे लिए सोचना ज़रा मुश्किल है ,
ऐसे भी दिन थे जब दोस्तों के साथ ,
नुक्कड़ पर गपशप करना ही अपराध था ,
मेरा लिखना, बोलना, मुस्कुराना तक,
मेरे शासकों को अखरता था
मुट्ठी भर अनाज का मोल आज मैं जानूं न जानूं ,
एक समय था जब दो कनक के दानों में ,
पूरा कुनबा पलता था
जो मुझे पुरस्कार स्वरूप,
यह आज़ाद भारत सौंप गए,
उनमें से किसी को ना मैंने देखा ना जाना
कुछ की तस्वीरें अब भी दीवारों पर टंगी हैं ,
बहुतों को तो मैंने कभी पहचाना ही नहीं
यह शाश्वत सत्य है ,
कि स्वतन्त्र लोकतंत्र का मोल वे बेहतर जान सकते थे ,
पर जो मुझ रंक को राजा बना गए ,
शायद कुछ कहना, समझाना और चाहते थे
चाहते थे कि इस धरा में फिर कभी,
विदेशियों का डंका न बजे,
सत्ताधारी प्रजा हो,
तो नेता अत्याचारी न रहे ,
जो मेरा नेतृत्व करे,
वो मेरा ही प्रतिबिम्ब हो
आज देश जैसा भी है, जो भी है,
उसका कारण मैं हूँ
आज मैं दबता हूँ , या दबाता हूँ ,
इसका निर्णायक भी मैं हूँ
आजादी, गणतंत्र कोई पुरस्कार नहीं,
पारिश्रमिक भर है
मेरा, और उन सबका जो है,
भारत के भविष्य भाग्य विधाता .
– अतुला गुप्ता
(Visited 192 times, 1 visits today)