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प्यारी बचपन की बारिश,
खिड़की के बाहर रिमझिम बारिश…हाथ में कॉफ़ी का प्याला…सामने प्लेट से उठती गरमागरम भजियों की खुशबू…रेडियो पर चलता ‘इक लड़की भीगी भागी सी’ गाना…बारिश का मौसम कितना ऑसम होता है ना!
उठकर गैलरी की शेड में आकर खड़ा होता हूँ, सड़कों पर बहती धाराओं को देखता हूँ, उसमें बेभान, बेधुंध भीगते कुछ अधनंगे बच्चे…अचानक कुछ हो जाता है! मन फिर बचपन में पहुँच जाता है, जब बारिश ज़मीन पर नहीं, सीधे मन पर बरसती थी.
आसमान में काले बादल छाए नहीं कि उनसे बरसने की मिन्नतें शुरू हो जाती थीं. गीली मिट्टी की खुशबू बारिश के आस-पास ही होने का संदेसा लाती थी. एक-एक पल का इंतज़ार, फिर एक कड़कती आवाज़ और खुल जाता बादलों का ताला! यहाँ बादल बरसे और वहां किताबें-कापियां फेंककर हम घर से निकले…अम्मा की डांट, जुकाम की दुहाई, परीक्षा का डर…टीन की छत पर बरसते हुए पानी में कुछ सुनाई नहीं देता.
वो आँगन में बारिश की ताल पर घंटों बेझिझक नाचना, बूंदों से प्यास बुझाना, शरीर का रोम-रोम तरबतर कर लेना, नन्ही-नन्ही नदियों में कागज़ की कश्तियाँ चलाना, दोस्तों के साथ झुण्ड बनाकर सड़कों पर निकल जाना, भरे हुए डबरों में ‘छपाक’ से कूदना, कीचड में फुटबॉल खेलना, एक दूसरे को गिरना-गिराना, पैर से पानी उछालना, मेंढक की आवाज़ में टर्राना…बारिश का असली मज़ा, यही तो होता था.
जाने क्यों वो बचपन वाली बारिश अब नहीं आती…या फिर हम समझदारी और सोफिस्टिकेशन का छाता खोलकर उसे रोक देते हैं.
पर सोचता हूँ जो बारिश जैसी चीज़ का मज़ा लेने से रोके, वो बात किस काम की? शेड से बाहर निकलता हूँ, दौड़कर नीचे सड़क पर आता हूँ, और उन्हीं अधनंगे बच्चों के बीच अपना बचपन फिर से पा लेता हूँ!
Images courtesy,
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Down memory lane with more letters…