प्यारे स्कूल के टिफ़िन बॉक्स,
स्कूल में लंच ब्रेक की घंटी बजने से पहले ही तुम्हारे बंद खानो में छिपे खाने का राज़ सोचते सोचते मन तरह-तरह के खयाली पुलाव पकाने लगता था।
टीचर क्लास से कब निकले, घंटी कब बजे, और बस्ते से तुम कब बहार आओ इसी सोच में आधी पढ़ाई भुला दी जाती थी। टन – टन – टन की आवाज़ और खटाक से खुलता था डब्बा। कभी आलू के पराठे , कभी पनीर, कभी सैंडविच, कभी पुलाव, और कभी माँ के धमकी भरे शब्दों से सने ‘पौष्टिक’ लौकी, कददु के साथ रोटी (“पूरा ख़तम करना, वरना….”)
डब्बे में चाहे जो भी हो, मन इसी ख़याल से डबल छलांगे लगाता था कि अभी दोस्त के डिब्बे का नज़ारा देखना बाकी है। अपने पराठों का दोसा से एक्सचेंज, या एक मिठाई का दसवा टुकड़ा पाकर भी यूँ लगता मानो हर दिन किसी 5 सितारा रेस्टोरेंट में दावत का मज़ा लिया जा रहा हो।
और एक ख़ास एडवेंचर तो शायद तुम्हारे साथ सभी ने किया होगा। टीचर से छिपते- छिपाते, हलके से ढक्कन खोलकर, झट से लड् डु निकालना और गप से मुँह में ! पास बैठे सहपाठी को भी कभी-कभी मैथ्स के उलझनों से बचाकर माँ के हाथ के बने चने मसाले का स्वाद चखाया जाता था। वो दोस्त चाहे जहा भी हो, चने मसाले का स्वाद याद करना आज भी नहीं भूलता।
किसी दिन कोई गलती से डब्बा लाना भूल जाये – कोई बात नहीं….मिनटों में हर किसी के डब्बे से परोसी multicuisine थाली पेश है।
सच, आज समझ में आता है, तुम्हारे बंद खानो में रोटी-सब्जी के साथ साथ कितना कुछ सिमटकर आता था – माँ का प्यार, पुराने दोस्तों की दोस्ती और नए दोस्त बनाने के १०१ तरीके…कभी-कभी टीचर के चेहरे पर मुस्कान लाता एक निवाला जो थोड़ा झिझकते, थोड़ा शरमाते उन्हें पेश किया जाता था। आज स्वाद तो बहुत से पकवानों का चखा है, पर रिश्तो को ज़िन्दगी भर बाँधता प्यार का मीठा स्वाद सिर्फ तुमसे ही पाया है….
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