प्यारे पीपी नंबर,
कई सालों तक मुझे लगता था कि तुम्हारा फुल फॉर्म Paas Pados Number ही है. अब जाकर पता चला कि Passby Phone Number है. अब बताइए, असली में वो रस कहाँ!
एक ज़माने में घर पर फ़ोन होना भी एक लक्ज़री हुआ करता था. मोहल्ले में एक या दो लोगों के पास ही फ़ोन होता था जो सबके काम आता. वो नंबर हम बिना किसी संकोच के रिश्तेदारों, दोस्तों और दफ़्तर वालों को बाँट दिया करते थे. यहाँ तक कि नौकरी के आवेदनों और शादी की इश्तेहारों तक में इनका उपयोग किया जाता था.
ओ टिंकू की मम्मी, फ़ोन आया है…फ़ोन वाले घर से निकली आवाज़, पूरे मोहल्ले की सैर करते-करते जब तक अपने घर पहुँचती तब तक आस-पास वालों के कयास लगना शुरू हो जाते थे.
“बेटी के लिए रिश्ता आया होगा, बहुत दिनों से ढूंढ रहे हैं, बड़े नखरे हैं उसके…”
“वो उनके काका-ससुरजी खाट पकड़े हुए हैं…उनकी ही ख़बर होगी…”
“गाँव से सास आ रही होगी…देखना कैसे मुँह चढ़ा रहेगा टिंकू की मम्मी का…”
अलग-अलग लोग, अलग-अलग सोच. खैर, जिसके लिए भी फ़ोन आया होता, वो कितना भी ज़रूरी काम कर रहा हो, उसे छोड़कर २ मिनट के अन्दर फ़ोन के सामने हाज़िर हो जाता था. फ़ोन की घंटी बजने का इंतज़ार करते-करते, दो-चार औपचारिक बातें हो जाती थीं, चुपके-चुपके पर्दों, शोकेस में रखी चीज़ों, चादरों-झालरों का आंकलन हो जाता था और रसोई से आती ख़ुशबू से आज बन रहे खाने का भी अनुमान लगाया जाता था!
“हींग के बिना तो इनका छौंक ही नहीं लगता…”
लम्बे इंतज़ार के बाद घंटी बजती और बातों का सिलसिला शुरू हो जाता. बीच-बीच में एक नज़र फ़ोन मालिक पर भी डालनी होती…उनके चेहरे पर के भावों से कैलकुलेट करना होता कि अभी कितनी देर बात और की जा सकती है.
पीपी कंसेप्ट की एक ख़ास बात यह थी कि कोई भी बात छुपाई नहीं जा सकती थी. अब इसे फ़ोन इस्तेमाल करने का चार्ज समझ लीजिए या अगली बार के लिए इन्वेस्टमेंट – शादी, सगाई, मृत्यु,बीमारी, सबके बारे में फर्स्ट राउंड डिस्कशन वहीं करना होता था और फ़ोन मालिक की राय को ख़ासी तवज्जो भी देनी पड़ती थी.
खैर, वो दिन भी अलग थे, लोग दूसरों की तकलीफ़ को अपनी तकलीफ़ समझा करते थे, दूसरों की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी भी ढूँढ लिया करते थे.
वक़्त बदल गया है. घर-घर फ़ोन आने से, पीपी नंबर अब चलन से बाहर हो गया है. पर आज के समय में, जब हम सब एक टापू जैसे बन गए हैं, एक दूसरे से दूर, कटे-कटे, मन उसे बहुत मिस करता है. माना कि उसमें प्राइवेसी का स्कोप ज़्यादा नहीं हुआ करता था…पर कम से कम दिलों के बीच का तार तो जुड़ा रहता था!
क्यों, आपका क्या ख़याल है?
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4 Comments
Very good expressions.You know the real way out.
Thank Moaiyyed ji for your valuable words
I still remember my pp number…. how many of u do??
Thanks Minu. Yes, that’s one number that we do remember, even if we don’t remember the mobile numbers of near and dear ones fed in our mobile phone nowadays…:) Isn’t it?