प्यारे बचपन के गणपति उत्सव,
ये बाप्पा में भी जाने क्या जादू है. उनके आने की आहट से ही दिल खुशियों से भर जाता है. अभी भी और बचपन की तो खैर बात ही क्या थी!
महीनों पहले से ही इवेंट की प्लानिंग शुरू हो जाया करती थी. बाप्पा को कहाँ बिठाना है, क्या-क्या करना है, सोचते-सोचते गणेशोत्सव आ जाता था. टाइम फॉर एक्शन!
तयशुदा दिन टोली निकल पड़ती थी रसीद कट्टा लेकर घर-घर चंदा लेने. एक रूपया, दो रुपया और पांच मिल गए तो कहना ही क्या. कुछ हँसी-ख़ुशी दे देते, कुछ नखरे करके, और कुछ तो बिलकुल ही नहीं. उन घरों से मुँह लटकाकर लौटना सबको याद होगा. जमा हुए पैसों से आयोजन की भव्यता तय होती थी. मूर्ति का साइज़, डेकोरेशन की सुन्दरता और प्रसाद का टाइप डिसाइड होता था.
बाप्पा के आने के एक-दो दिन पहले तो सांस लेने की भी फुर्सत नहीं. पंडाल लगाना, आसन की जगह को साफ़ करना, उस पर घर से लाई सुन्दर चादर बिछाना, थर्माकोल की सजावट करना, झालर लटकाना, लाइटिंग करना, शो के आइटम्स, चकरी आदि रखना…भूख-प्यास गायब, घर जाने का होश नहीं!
फिर उगता था गणेशोत्सव का सूरज. सुबह-सुबह नहा-धोकर टोली बाज़ार जा पहुँचती. धोती का रंग, साफे की स्टाइल, दायीं सूंड/बायीं सूंड, फिनिश…सबकुछ जांचने-परखने के बाद गणपति का चुनाव होता था. फिर ढोल-ढमाके के साथ, नाचते-गाते ‘गणपति बाप्पा मोरया’ के जोशीले नारों के साथ उनको लाया जाता था.
दोनों टाइम मन लगाकर आरती करना, बड़े-बुजुर्गों को आरती का मुख्य अतिथि बनाना, घर-घर में लड्डू, मोदक, मिश्री का प्रसाद बांटने जाना, देर रात तक पंडाल में गप्पे लड़ाना, मोहल्ले के बच्चों का ही टैलेंट शो, गाने, मिमिक्री, जोक्स, डांस….कितनी मज़ेदार यादें हैं.
अब बड़ा हो गया हूँ, बड़े साइज़ के गणपति लाता हूँ, डेकोरेशन भी महँगी और रेडीमेड चीज़ों से करता हूँ. पर आज भी बचपन के गणपति उत्सव को मिस करता हूँ, वो दोस्तों की टोली, वो बड़ी सी रंगोली, दस दिनों की मस्ती, वो बेगरज़, मासूम भक्ति…शायद कहीं खो गई. इस बार बाप्पा अपने साथ उनको भी साथ लेकर आए, इसी प्रार्थना के साथ…गणपति बाप्पा मोरया.
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