दिवाली के अगले दिन हाथ में थैला लिए निकलते बच्चे
कमीज़ छोटी, पतलून फ़टी, चेहरे सच्चे
उन्हें देखकर एक बात दिल में खल जाती है
दिवाली कुछ लोगों को बिना छुए ही क्यों निकल जाती है
फूटे हुए पटाखों के ढेर में ख़जाना खोजते हुए
हाथों से, नज़रों से चीज़ों को टटोलते हुए
शायद कोई बिना जली लड़, बम, अनार, चकरी या फूलझड़ी मिल जाए
तो यार अपनी भी दिवाली मन जाए
दिवाली उन्हें भी खाली हाथ कहाँ रखती है
सेकंडहैण्ड ही सही, दसियों तोहफ़े दे देती है
लगता है वो जो पटाखे हमसे रूठकर नहीं फूटे थे
वो शायद उनके लिए ही छूटे थे
कुछ थैले में डाल के, कुछ वहीं जला के
वो मासूम बच्चे इतने खुश हो जाते
एक पिद्दे से बम की आवाज़ में
हज़ार की लड़ का मज़ा लूटकर ले जाते
उनका मस्ती भरा नाच देखते ही बनता है
उसमें से ख़ालिस उल्लास का सागर उफनता है
मानो कह रहे हों कि भले दिवाली तुम्हारी है
पर बासी दिवाली तो हमारी है
छोटी-छोटी बातों में बड़ी ख़ुशी छुपी है
इस दिवाली उन नासमझ बच्चों में मुझे यही सीख दी है.
– Aarish
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